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तरक्की के कोलाहल में सुस्त रफ्तार

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Slow pace in the noise of progress  कहा जा रहा है कि हम अगले वर्ष यानी 2026 में दुनिया की चौथी बड़ी शक्ति बन जाएंगे और उससे अगले वर्ष 2027 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति ‘फिक्की’ का कहना है कि भारत की वृद्धि दर का अनुमान घटकर 6.4 फीसद होगा। मगर प्रमुख अर्थशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि 2025 में वृद्धि तेज बनी रहेगी। दुनिया में सबसे तेजी से भारत बढ़ेगा और इसके दम पर दक्षिण एशिया की जीडीपी भी बढ़ जाएगी। चाहे विश्व आर्थिक मंच ने भारत के बुनियादी ढांचे में अपेक्षित निवेश न होने की ओर इंगित किया था, लेकिन चूंकि इन अर्थशास्त्रियों ने चीन में भी अर्थव्यवस्था के धीमी होने का अनुमान लगाया, इसलिए उसकी तुलना में अपने आप HTM आगे पाकर हम एक ठंडी दिलासा ले सकते हैं। ठंडी दिलासा इसलिए कि असली बात तो यह है कि चाहे विकास दर सबसे ऊंची रहे, आम आदमी का हाल क्या है ? भारत औसत प्रति व्यक्ति आय को देखते दुनिया को छोड़िए, एशिया | के पिछड़े हुए देशों के समकक्ष आ जाती है। अपनी तारीफ में चाहे आप कह लें कि दुनिया भर में अमेरिका के बाद सबसे कुशल भारतीय पेशेवर हैं, भारतीय युवा एआइ, डिजिटल और हरित ऊर्जा क्षेत्रों में सबसे कुशल हैं। मगर याद रखिए कि तीसरी आर्थिक ताकत बनने का सपना देखने वाला भारत दुनिया में ‘ओवरआल रैंकिंग’ में पच्चीसवां रहा है। यह रैंकिंग ‘स्किल फिट एकेडेमिक रेडिनेस फ्यूचर आफ वर्क’ और आर्थिक बदलाव पर आधारित है। कहने की बात नहीं कि यहां हम तैयारी और परिवर्तनशीलता के अभाव में अभी तक फिसड्डी हैं।

भारत अपनी नई उपलब्धियों की घोषणा करते थक नहीं रहा। कहा जा रहा है है कि इस साल भारत ने अंतरिक्ष में इतिहास रच दिया, जब उसने दो उपग्रहों को जोड़ दिया। ऐसा करने वाला यह दुनिया का चौथा देश बन गया है। यही नहीं, धरती पर भारत की डिजिटल ताकत वृद्धि का अंत नहीं। नया आंकड़ा आया। इस साल हमारे देश के इंटरनेट उपयोग कर्ताओं संख्या नब्बे करोड़ के पार पहुंच जाएगी। 2024 में यह 88.6 करोड़ थी। ग्रामीण भारत भी इंटरनेट के इस्तेमाल में आगे बढ़ रहा है। कुल आबादी में इसकी हिस्सेदारी 55 फीसद हो गई है। दूसरी ओर, तरक्की का यह आलम कि सोना दो महीने बाद 81 हजार रुपए से पार चला गया चांदी 94 हजार रुपए प्रति किलो पर पहुंची। नव धनकुबेरों ने बहुत महंगे फ्लैटों और बड़ी कारों की बिक्री शिखर पर पहुंचा दी। चाहे इस धूम धड़ाके में उन गरीबों की सुध न लेने की उम्मीद पहली फरवरी को पेश होने वाले बजट पर छोड़ दी गई है, जहां उन्हें कुछ और रियायतें देकर शायद उनका जीवन सहज किया जाए आम आदमी की उम्मीद तो यही है कि भूख से मरने न देने की गारंटी तो दे दी, अब शिक्षा के अनुसार रोजगार देने की गारंटी भी दे दो। पर उसके लिए नई उद्यम नीति बनाने की जरूरत है। निवेशकों का उत्साह गिरने न देने की जरूरत है। मगर हमारे शेयर बाजार के सूचकांक क्यों

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धराशायी होते नजर आ रहे हैं? क्यों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश फेडरल दरों से आकर्षित होकर भगोड़ा हो रहा है? और क्यों देश की स्थायी तरक्की में ये आंकड़े परेशान कर रहे हैं कि पूरी कमाई पर्यटन, होटल और सेवा क्षेत्र के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। खेतिहर बेहतर आर्थिक स्थिति में नहीं आया। विनिर्माण क्षेत्र में सुस्ती है। इसके साथ शेयर सूचकांक लगातार गिरावट दिखा रहे हैं। फिक्की से लेकर अन्य अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन

संस्थान तो कहते हैं कि गिरावट के बावजद भारत गति पकड़ लेगा और हम अपनी आर्थिक वृद्धि का स्तर बनाए रखेंगे।

इस नए युग आर्थिक विकास दर में हम बाहुबली देशों से आगे रहेंगे। मगर प्रश्न है कि चीन तो अपनी आर्थिक नीतियों की रुग्णावस्था के कारण पिछड़ने लगा, पर ‘चीन प्लस’ का यह अतिरिक्त निवेश भारत की ओर क्यों नहीं आया? क्यों वैश्विक दक्षिण के दूसरे देशों की ओर मुड़ गया? क्या इसका कारण यह नहीं है कि हम दफ्तरशाही और लालफीताशाही की नाक में नकेल नहीं दे सके ? भ्रष्टाचार 6? को शून्य स्तर पर पहुंचाने की घोषणाओं के बावजूद हम भ्रष्टाचार के सूचकांक में फिर उसी पायदान पर अटके हैं। | वैसे, में भारत में गर्व करने योग्य बहुत-सी बातें हैं। पहली । पहली बात तो यही है कि भारत ने देश में एक युवा वर्ष लाने का वादा किया है। इस साल प्रधानमंत्री के पहले वक्तव्य और पहले संदेश को किसानों, युवाओं और कर्मचारियों के के नाम कर दिया गया है। कर्मचारियों के लिए आठवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दे दी गई है। इससे केंद्रीय कर्मचारियों और राज्य कर्मचारियों की कमाई के बीच एक असंतुलन और असंतुष्ट विभाजन का खतरा भी पैदा हो गया है। पंजाब को ही अगर देखा जाए तो केंद्रीय कर्मचारियों के लिए आठवें वेतन आयोग की घोषणा हो गई, लेकिन पंजाब अपने छठवें वेतन आयोग की कमियां ही पूरी नहीं कर पा रहा।

जहां तक समतावाद का संबंध है, केंद्र सरकार ने गरीबों का भला करने का संकल्प इस वर्ष की शुरुआत में लिया है। उसने गरीबी उन्मूलन का संदेश भी दिया है और युवाओं को नए युग के। लिए तैयार करने के लिए दिल्ली में 600 करोड़ की नई शैक्षणिक योजनाएं शुरू करने की घोषणा कर दी है। किसी इलाके में चुनाव घोषित होते हैं, तो वहां नई विकास योजनाओं की घोषणाओं की बाढ़ आ जाती है, लेकिन विस्फारित नेत्रों वाली आम जनता यह पूछती है कि ये परियोजनाएं पूरी कब होंगी? औसत मूल्यांकन यह है कि जितनी परियोजनाओं की घोषणा होती है, उनमें से तीन चौथाई अपने निर्धारित समय से पिछड़ जाती हैं। इस तरह उनकी लागत और बढ़ जाती है। यह बढ़ी हुई लागत अंततः बजट घाटे को बढ़ाती, रुपए का विनिमय मूल्य गिराती है और महंगे आयात देश में मुद्रास्फीति बढ़ाते हैं। इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता क्या है? नए युग की घोषणा करने से पहले यह भी सोच लिया जाए। एक और दिशा में चिंतन कर लें। इस युग में हम भारत को आयात अर्थव्यवस्था वस्था नहीं, बल्कि निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं, लेकिन नए आंकड़े कहते हैं कि हमारी आयात जरूरतें कम नहीं हुईं। आत्मनिर्भरता के नारों के बावजूद हम आत्मनिर्भर नहीं हुए, लेकिन हमारा निर्यात अवश्य एक फीसद कम हो गया। अमेरिका और चीन पर हमारी आयात निर्भरता उसी तरह खड़ी है। अगर भारत डालर पर निर्भरता को कम करके किसी वैकल्पिक मुद्रा से विनिमय का सपना देखता है, तो अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप उसे बढ़े हुए शुल्क का भय दिखाने लगते हैं। इस सब तरक्की के नारों के बावजूद देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अपने आप को तरक्की के हाशिये से बाहर क्यों पाता है? इन कल्याणकारी नीतियों में मुफ्तखोरी की झलक मेहनत की आदत के ऊपर क्यों हावी होने लगी है ?

विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट, पंजाब

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