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लोककला के नाम पर अश्लीलता का तड़का

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A touch of obscenity in the name of folk art वर्तमान परिदृश्य में लोककला के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रहा है, जो कि चिंतनीय व शर्मनाक है। यह न केवल इन परंपरागत शैलियों को धूमिल कर रहा है बल्कि ‘ विदेशी / वेस्टर्न के चक्कर में हम अपनी पहचान से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया या यूट्यूब, फ़िल्म हो या टीवी के कार्यक्रम सभी जगह फूहड़ नाच का नंगा प्रदर्शन किए जाने की परंपरा ने ज़ोर पकड़ लिया है। यूट्यूब और सोशल मीडिया पर रिल्स, गानों, फ़िल्मों, कार्यक्रमों सबमें अश्लीलता इस क़दर घर करती जा रही है कि आप अपने परिवार के साथ देख ही नहीं सकते और रही सही कसर अब नंगे होकर रील बनाने वालों ने पूरी कर दी है। अधिकतर गाने, एलबम और सिनेमा अश्लीलता से भरपूर है। आज के लोकगीत सुनने की ही बात कर लें तो उन गानों के हर शब्द में अश्लीलता कूट-कूट कर भरा होता हैै। जब हम-आप परिवार के साथ मिलकर गाना नहीं सुन सकते तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन गानों के सीनों का क्या हाल होगा। ऊपर से अश्लीलता का कम्पीटिशन इस क़दर होता जा रहा है कि एक से एक हिट एलबम, गाने बनते हैं। अश्लीलता को दिखाने का होड़ इस क़दर है कि मत पूछिए। इस बारे में कलाकारों, गायकों से पूछ लिया जाता है तो छूटते ही कहते हैं कि यह तो पब्लिक डिमांड है। जनता यही सब देखना पसंद करती है। ऐसा न परोसें तो गाना हिट ही नहीं होगा। अब ऐसे कलाकारों को कौन समझाए कि अश्लीलता की शुरुआत तो फ़िल्मों व गानों के जरिए ही हमारे समाज में फैली। जिसे रोकने का कोई सकारात्मक क़दम नहीं उठाया गया। ऐसे मजनू कलाकारों के चक्कर में हमारा पूरा समाज दूषित होता जा रहा है। मान-मर्यादा सब छिन्न-भिन्न होता जा रहा है।

यदि आज भी हम नहीं सचेते तो न जाने हमारे समाज की दशा और दिशा क्या होगी। ऐसा नहीं है कि ऐसे नृत्यों का असर नहीं हो रहा है। पिछले 5-10 सालों में जिस प्रकार का नृत्य व गाने प्रस्तुत किए है, उसने तो हमारे समाज के ताना-बाना को ही हिलाकर रख दिया है। ये मन को शांत करने के बजाय अशांत ही कर देता है। बाज़ार की लालची और मुनाफाखोर प्रवृत्ति ने एक लोककला की हत्या कर दी और अब उसके नाम पर लोगों को अश्लीलता परोस रही है। इन्टरनेट ने बेशक लोगों तक ज़्यादा सूचनाएँ पहुँचाई है लेकिन इसने ग्रामीण सौंदर्यबोध और मान-मर्यादा को खंडित कर दिया। वह हर चीज को अधिक बिकाऊ बनाने के लिए अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी। कुल मिलाकर यह आसानी से देखा जा सकता है कि इन्टरनेट के विस्तार और मोनेटाइजेशन ने ऐसी सामग्री को बढ़ावा दिया है जो बहुत ज़्यादा देखी जा रही है लेकिन मानवीय संवेदनाओं पर उसने घातक प्रहार किया है। संगीत की शालीनता पर फूहड़पन भारी वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं आशिकमिजाज गीतकार जिससे देशभर में लम्पटीकरण भरे गीतों के प्रचलन से संस्कृति को गहरी चोट पहुँची है। आधुनिकता की चकाचौंध में हमारी संस्कृति व विरासत से जुड़े गीत न जाने कहाँ गुम से हो गये हैं और प्रचलन बढ़ा उन मद भरे गीतों का, जिनमें से संस्कृति व सौन्दर्य गायब होकर उपहासित हो गयी है। लम्पटीकरण के शब्द गीतों में भर आये हैं। वर्तमान में तथाकथित रचनाकारों द्वारा रचित गीतकारों, मजनू गायकों द्वारा गाये हुए गीतों में पाश्चात्य संस्कृति की तर्ज पर नंगापन आ गया है। इन अलफाजों में गीत गाने वाले गायकों को इतनी भी शर्म नहीं है कि जिस अंदाज़ में वे अपने शब्दों को व्यक्त कर रहे हैं व अंदाज़ ‘जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने’ जैसा है।

यही अंदाज़ संस्कृति पर गहरी चोट मार रहा है। लोक गायकों के नाम पर अश्लील लिंक्स से सोशल मीडिया बाज़ार भरा पड़ा है। कई चैनलों पर भी इस तरह के गीतो का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है। गीत बिकवाने की होड़, व्यूज और लाइक्स के जरिए पैसा कमाने की लालसा, इन सबने पहले ही संस्कृति व विरासत धूमिल कर डाली है क्योंकि गीत संगीत ही एक ऐसा माध्यम होता है जो समाज को संदेशो का पैगाम देती है। आज ये पैगाम अपनी दिशा बदल चुके हैं। विभिन्न बस स्टेशनों, चलने वाले विभिन्न जीप-कार, बसों में जो गीत सुनने को मिलते हैं उनमें छिछोरापन व लम्पटीकरण का अंदाज़ साफ़ झलकता है। इन गीतों का श्रवण विशेषकर युवा वर्ग आनंदपूर्वक करता है। कई अवसरों पर शादी-व्याह आदि उत्सवों में कुछ बुज़ुर्ग जन भी इस तरह के गीतों पर जमकर ठुमके लगाते हैं। सांस्कृतिक परम्परा पर चिंतन करने वाले लोग इसे लोक संगीत पर गहरी ठेस मानते हैं। आशिकी अंदाज़ के साथ पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आकर गीत गाने वाले गायक-गायिकाएँ, नायक-नायिकायें धीरे’-धीरे सांस्कृतिक पहरूओं की नज़र का कांटा बनते जा रहे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है यदि इन्हीं गीतों का दौर अश्लीलता की पराकाष्ठा लांगता रहा तो इस तरह के लोगों का सामाजिक बहिष्कार ज़रूरी हो सकता है। आज के गानों में बंदूक, दारू, लड़कीबाजी व अश्लीलता का आयाम देखने को मिल रहा है जो कि हमारी संस्कृति के लिए और गानों के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक है। अब गीत के कलाकार, गायक, निर्माता ऐसा क्यों कर रहे हैं ये तो बड़ा सवाल है?

या फिर हो सकता है कि दर्शकों को लुभाने या फिर गाने के नाम पर अश्लीलता परोसा कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए ये सब किया जा रहा हो लेकिन बदनाम संस्कृति व लोककला से जुड़े लोग भी हो रहे हैं। एक ओर जहाँ कई लोग संस्कृति को प्रमोट करने के लिए अपना करियर, अपनी मेहनत और अपना सब कुछ दांव पर लगा रहे हैं तो कोई हमारी संस्कृति को इस तरह से बदनाम कर उसे अश्लील गानों के साथ परोस रहे हैं। अब आप ही सोचिए की अगर हमें ऐसी अश्लीलता ही दिखानी है या देखनी है तो आने वाले समय पर हम संस्कृति के नाम पर क्या करेंगे और क्या-क्या होगा? कला का सहारा लेकर कुछ लोग कम समय में चर्चित होना चाहते हैं। मशहूर होना है तो अपने हुनर से हों। चर्चा में रहने के लिए कला और अपनी संस्कृति से खिलवाड़ करना एकदम ग़लत है। ऐसे कलाकारों को सजा होनी चाहिए। अश्लीलता फैलाने के लिए कुछ लोग कला की आड़ ले रहे हैं। अश्लील नाटक, गीतों का मंचन करने वाले कलाकार ही नहीं बल्कि वे आयोजक और संयोजक भी दोषी है, जो ऐसी प्रस्तुतियों को बढ़ावा देते हैं।

प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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