शहरी संस्कृति में एक ओर भव्यता है, तो दूसरी ओर गहरी असमानता भी । यहां एक ओर ऊंची अट्टालिकाओं में महंगे रेस्तरां और व्यावसायिक परिसर या माल हैं, तो दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों में जीवन के लिए संघर्ष करते लोग। यहां सपने बेचे जाते हैं और चकनाचूर भी होते हैं। यह विडंबना ही शहरी संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान बनती गई है। शहरों में लोग एक-दूसरे के पास रहकर भी अजनबी होते हैं। पड़ोसी का नाम तक पूछने का समय नहीं, लेकिन सोशल मीडिया पर अनजान लोगों से मित्रता निभाने में दिलचस्पी रहती है। यहां लोग अपार्टमेंट में दीवारें साझा करते हैं, लेकिन भावनाएं नहीं। ग्रामीण समाज की तुलना में रिश्ते अधिक औपचारिक और व्यावसायिक हो जाते हैं ।
शहर में सब कुछ तेजी बदलता है- मकान, सड़कें, तकनीक और यहां तक कि रिश्ते भी । आज जो पड़ोसी है, वह कल किसी और शहर में होगा । इस अस्थिरता ने लोगों को आत्मकेंद्रित बना दिया है। भावनाओं के लिए जगह कम होती जा रही है और हर रिश्ता ‘व्यावसायिक’ होता जा रहा है। शहर की व्यस्तता इंसान को इतना मशगूल कर देती है। कि वह कई बार अपनी नैतिकता को ताक पर रख देता है। यहां ‘समय ही धन है’ का नियम चलता है और इस दौड़ में कई लोग अपनी ईमानदारी, दया, और नैतिकता को कुर्बान कर देते हैं ।

हालांकि यह भी सच है कि शहरों ने ही मानवाधिकारों, स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा दिया है। यहां जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव कम देखने को मिलता है । यही कारण कि गांव के लोगों के लिए शहर हमेशा आकर्षण का केंद्र रहा है। शहरी संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू तकनीक भी है। जहां गांवों में आज भी लोग आपसी बातचीत और मेल-जोल से समस्याओं का हल निकालते हैं, वहीं शहरों में समाधान के लिए तकनीक का सहारा लिया जाता है। आज शहरी जीवन मोबाइल फोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के बिना अधूरा पर यह निर्भरता एक नई चुनौती भी प्रस्तुत करती है। इंसान अब वास्तविक जीवन से कटता जा रहा है। रिश्ते, दोस्ती और भावनाएं ‘डिजिटल’ हो रही हैं। लोग एक-दूसरे से कम और स्क्रीन से अधिक बातें करने लगे हैं। यह स्थिति शहरों में अकेलेपन और अवसाद को जन्म दे रही है ।
शहरों ने कला और संस्कृति को भी एक नया आयाम दिया है। यहां एक ओर पारंपरिक नृत्य, संगीत और साहित्य को सहेजने के प्रयास किए जाते हैं, तो दूसरी ओर नए-नए प्रयोग भी किए जाते हैं। सिनेमा, थियेटर, फैशन और आधुनिक संगीत का गढ़ शहर ही है। पर यह भी सच है कि पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में पारंपरिक मूल्यों और कलाओं को बचाए रखना एक चुनौती बनता जा रहा है। आधुनिकता और परंपरा के इस संघर्ष में कौन विजयी होगा, यह समय ही बताएगा। शहरीकरण ने जहां सुविधाओं को बढ़ाया है, वहीं पर्यावरण के लिए गंभीर समस्याएं भी पैदा की हैं। गगनचुंबी इमारतें, चौड़ी सड़कें और विशाल कारखाने जहां विकास के प्रतीक हैं, वहीं यह पर्यावरण के विनाश का कारण भी बन रहे हैं। वायु प्रदूषण, जल संकट, और कचरे का प्रबंधन शहरीकरण की सबसे बड़ी चुनौतियां बन गई हैं। प्रकृति से दूर होने के कारण शहरों में मानसिक तनाव और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बढ़ रही हैं। क्या यह विकास वाकई प्रगति है, या यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें विनाश की ओर ले जा रही है ?
संस्कृति की यह यात्रा एक विडंबना की तरह है- यह हमें आगे बढ़ने का सपना दिखाती है, लेकिन कई बार हमें पीछे धकेल देती है। यह हमें स्वतंत्रता देती है, पर हमें अकेला भी कर देती है। यह हमें तकनीकी रूप से सक्षम बनाती है, लेकिन मानवीय संवेदनाओं से दूर भी करती है। क्या हम एक ऐसे शहर की कल्पना कर सकते हैं जहां आधुनिकता और परंपरा का संतुलन बना रहे ? जहां विकास के साथ-साथ पर्यावरण का भी ध्यान रखा जाए ? जहां तकनीक के साथ-साथ मानवीय संवेदनाएं भी जीवित रहें? शायद यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा लक्ष्य है, क्योंकि शहर केवल इमारतों और सड़कों से नहीं बनता। वह बनता है वहां रहने वाले लोगों से। जब तक मनुष्य की सोच में बदलाव नहीं आएगा, तब तक शहर केवल एक ‘जंगल’ ही रहेगा, चाहे वह कंक्रीट का हो या सपनों का ।
शहरी संस्कृति एक ऐसे दर्पण की तरह है, जो हमें हमारी उन्नति और प्रगति दिखाती है, लेकिन जब हम इसमें झांकते हैं, तो अपने भीतर की संवेदनाओं को धुंधला होता हुआ पाते हैं । चमचमाती इमारतें, तेज रफ्तार गाड़ियां और दिन- रात जगमगाने वाली रोशनी हमें आधुनिकता की ओर धकेलती हैं, पर इन सबके बीच कहीं न कहीं हमारे दिलों की आवाज दब-सी जाती है। क्या हमने कभी सोचा है कि जिस शहर को हम अपनी उपलब्धियों का प्रतीक मानते हैं, वही हमें भावनात्मक रूप से कितना अकेला कर चुका है ? आज शहर की गलियों में भागती जिंदगी पर्यावरण को भी पीछे छोड़ चुकी है। जहां कभी हरियाली थी, वहां अब कंक्रीट का जंगल खड़ा है। तकनीक ने हमें सुविधा लेकिन रिश्तों से दूर कर दिया। हमें एक ऐसे शहर की जरूरत है, जहां विकास प्रकृति के साथ कदमताल करे, जहां इमारतें ऊंची हों, लेकिन इंसानियत की नींव और भी गहरी हो । असली शहर वह नहीं, जो ऊंचाई में सबसे आगे हो, बल्कि वह है, जहां इंसान अपने दिल के सबसे करीब हो ।

सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट, पंजाब