Game Mind खेलना बच्चों के स्वस्थ होने की निशानी मानी जाती है। इसलिए खेलते-कूदते बच्चों को देखकर हर मां खुश होती है । खेलने से होने वाले फायदों के कारण ही आजकल माता-पिता अपने बच्चों के खेलने पर अधिक जोर देने लगे हैं । औपचारिक स्कूली शिक्षा शुरू होने के पहले यानी ‘प्री-स्कूल’ की पूरी अवधारणा ही बच्चों के खेल को ध्यान में रखकर तैयार की गई है, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा खेलते हुए सीख सकें । पर शायद कम ही लोगों को पता होगा कि बच्चों के खेल का उनके मानसिक स्वास्थ्य से भी संबंध होता है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने शोध से यह निष्कर्ष निकाला है कि जो बच्चे ‘प्री-स्कूल’ की उम्र में अपने दोस्तों के साथ अच्छे से खेलना सीख लेते हैं, बड़े होने पर उनका मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही बेहतर होता है। शोधकर्ताओं ने लगभग सत्रह सौ बच्चों के व्यवहार का विश्लेषण किया। तीन वर्ष की आयु जिन बच्चों में अपने साथियों के साथ अच्छे से खेलने की क्षमता विकसित हो गई, उन बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य अगले चार साल तक बेहतर रहा। वे ज्यादा शरारतें या हुड़दंग मचाने वाले नहीं थे। ऐसे बच्चे अपने सहपाठियों से लड़ते-झगड़ते भी कम थे ।
साफ है कि साथी के साथ खेलने की क्षमता मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। खेल और मानसिक स्वास्थ्य के बीच यह संबंध उन बच्चों के बर्ताव में भी देखा गया, जिन्हें मानसिक बीमारियां होने की संभावना अधिक थी । जैसे बहुत गरीब घरों के बच्चे, जिन्हें ठीक से पोषण नहीं मिला हो या फिर अन्य वर्गों के बीच मानसिक तनाव या अवसाद से जूझ रही मां के गर्भ से जन्मे बच्चे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय में खेल, विकास एवं शिक्षण केंद्र की जेनी गिब्सन के मुताबिक, ऐसा लगता है कि यह संबंध वास्तविक है, क्योंकि दूसरे बच्चों के साथ खेलते हुए जब बच्चा बड़ा होता है तो वह दोस्त बनाने का कौशल भी सीखता है । भले ही उन्हें मानसिक तौर पर बीमार होने का खतरा ज्यादा हो, लेकिन दोस्ती के ये तार उन्हें आगे बढ़ने और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने में मदद करते हैं ।
दरअसल, अपने पक्के दोस्त के साथ खेलते हुए बच्चा साझा करना, सहयोग करना और मिलकर रहना जैसे गुण सीखता है 1 इन गुणों का बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बच्चों में बढ़ती मानसिक बीमारियों ने आज मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अभिभावकों की चिंता को भी बढ़ा दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ने हाल ही में खुलासा किया है कि दुनिया में दस से उन्नीस वर्ष का हर सातवां बच्चा मानसिक समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं में अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। भारतीय बच्चों और किशोरों में भी बढ़ता अवसाद एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। पिछले कुछ समय में आए अनेक अध्ययनों में यह सामने आ चुका है कि स्कूल जाने वाले तेरह से अठारह वर्ष के अधिकतर बच्चे अवसाद का शिकार बन रहे हैं। बाल रोग विशेषज्ञ भी मानते हैं कि मानसिक रूप से बीमार बच्चों का इलाज अगर तीन वर्ष की आयु से शुरू कर दिया जाए तो उनके स्वस्थ होने की संभावना बढ़ जाती है ।

यह जगजाहिर तथ्य है कि बच्चों और किशोरों में मानसिक रोगों में वृद्धि का एक बड़ा कारण उनके स्वतंत्र रूप से खेलने, घूमने और पसंदीदा गतिविधियां करने के अवसरों में आई भारी कमी है। आजकल के अभिभावक अपने नन्हे-मुन्नों की हर गतिविधि पर कड़ी निगरानी रखते हैं। उन्हें बात-बात पर टोकते हैं। बच्चा किसी काम में उलझ गया हो तो फौरन आगे बढ़कर उसकी मदद करते । उसे खुद ही समस्या से निकलने का प्रयास नहीं करने देते। बच्चों को थोड़ी देर भी रोने नहीं देते । हालांकि यह सब वे अच्छे इरादे और साफ-सफाई का खयाल करके हैं, लेकिन इस तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी स्वतंत्रता से उसे वंचित कर देते हैं । वे देर से बोलना और चलना सीख रहे हैं। हर वक्त बच्चों को मार्गदर्शन और सुरक्षा देने के विचार से हम अनजाने ही बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर और मानसिक बीमारियों के खतरे के करीब ले जा रहे हैं। जिसके लक्षण हमें बच्चों की उम्र बढ़ने पर या किशोर होने तक साफ-साफ दिखने लगते हैं। बच्चा अधिक उदास या बहुत शरारती हो है । चिड़चिड़ापन, भय, अविश्वास, मिजाज में तेज उतार- चढ़ाव, बात-बात पर रोने जैसी भावनात्मक कमजोरियां उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाती हैं।
साथियों के साथ खेलने और मानसिक स्वास्थ्य के बीच संबंध शायद इसलिए होता है, क्योंकि दूसरों के साथ खेलने से बच्चा भावनाओं पर नियंत्रण करना सीखता है। खेलते हुए वह विचार, संवेदना और अनुभव के आधार पर निर्णय लेता है । उसकी गतिविधियों में सामाजिकता आती है । उदाहरण के तौर पर, अपने दोस्तों की भावनाओं को समझने और उन पर अपनी प्रतिक्रिया देने की उसमें क्षमता विकसित होती है। उसे समस्याओं का समाधान करने और अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करने का अवसर मिलता है। ये बातें उसके व्यवहार को लचीला और उदार बनाती हैं। अधिक स्पष्ट और सुलझी हुई सोच विकसित होती है । इस तरह समय बीतने पर वह मानसिक रूप से मजबूत और स्वस्थ युवा बनता है ।

सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट, पंजाब