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Depleting resources due to increasing desertification बढ़ते मरुस्थल से घटते संसाधन

DESERT

पृथ्वी को मरुस्थलीकरण से बचाने और भोजन, कपड़ा आदि बुनियादी जरूरतों के लिए उत्पादक भूमि की रक्षा करना जरूरी है। विश्व की 3.20 अरब आबादी इस समय विस्थापन का संताप झेल रही है। स्थानीय स्थितियां लोगों को प्रवास के लिए विवश कर रही हैं। मिट्टी अपनी उत्पादकता खोती जा रही है। भू-प्रबंधन की व्यवस्था असुरक्षित हो रही है। भूमि-आधारित रोजगारों का समाधान ढूंढ़ पाना कठिन हो रहा है। तेजी से वनों की कटाई मरुस्थलों का विस्तार कर रही है। इस समय दुनिया में मात्र 60 फीसद जंगल बचे हैं। मरुस्थलीकरण, सूखा और भूमि पुनर्बहाली पर वैश्विक विमर्श हो रहे हैं। विश्व की 40 फीसद भूमि क्षरित हो चुकी है, यानी इसकी जैविक उत्पादकता लगातार ह्रास की ओर है। इसका जलवायु, जैव विविधता और लोगों की आजीविका पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। यह इसलिए भी चिंताजनक है कि भूमि क्षरण से सूखा, रेत और धूल भरे तूफानों से जन-जीवन दूभर हो रहा है। भू-वेत्ता और मौसम विज्ञानी आगाह कर रहे हैं कि आगामी दो दशक बाद दुनिया में भयावह सूखे के कारण तीन चौथाई आबादी को पेयजल संकट से दो-चार होना पड़ सकता है।

सूखे के साथ ही मरुस्थल बढ़ने के कारण वैश्विक मानचित्र तेजी से बदल रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह, जलवायु परिवर्तन और खराब भूमि प्रबंधन है। सूखे के जोखिमों की प्रणालीगत प्रकृति दर्शाती है कि कैसे ऊर्जा, कृषि, नदी परिवहन और अंतरराष्ट्रीय व्यापार जैसी एक दूसरे से जुड़ी स्थितियां प्रभावित हो रही हैं। दुनिया भर में जन जीवन और आजीविका बचाने के लिए अब तो सूखे के प्रति सहन क्षमता बढ़ाने के लिए सत्तर से अधिक देशों का एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता – संचालित डेटा मंच भी सक्रिय हो चुका है। सूखा सहन सक्षमता साझेदारी को वित्तपोषित करने के लिए 2.15 अरब डालर के प्रारंभिक योगदान की घोषणा भी हो चुकी है।

FOREST
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तीन दशक पहले दुनिया के 196 देशों और यूरोपीय संघ ने मरुस्थलों से निपटने के लिए एक साझा मसविदे पर हस्ताक्षर किए थे। इसी पर आपसी विमर्श के लिए पिछले दिनों एक बैठक सऊदी अरब के रियाद में भी हुई थी। ताजा अध्ययनों से पता चलता है कि वर्ष 2000 के बाद से अब तक भूमि – क्षरण में 29 फीसद की बढ़ोतरी हो चुकी है। भूमि क्षरण से प्रभावित आबादी महंगाई, बेरोजगारी और अप्रत्याशित ऊर्जा बोझ से कराहने लगी है। भूमि और मिट्टी का नुकसान निर्धन परिवारों को पौष्टिक भोजन और बच्चों के सुरक्षित भविष्य से वंचित कर रहा है।

इस दिशा में सबसे सशक्त और सार्थक पहल संयुक्त राष्ट्र की रही है। भूमि बचाने में विश्व की मौजूदा ढुलमुल आर्थिकी ने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों से धन जुटाने के प्रयासों को अब काफी चुनौतीपूर्ण बना दिया है। अनुमानित तौर पर इसके लिए संचयी निवेश वर्ष 2030 तक कुल 2.6 ट्रिलियन डालर जरूरी माना जा रहा है। नागरिक समाज संगठनों का कहना है, यह उतनी ही राशि है, जितनी दुनिया वर्ष 2023 में रक्षा बजट पर खर्च कर चुकी है। इस चुनौती से पार पाने के लिए अब सभी स्तरों पर निर्णय लेने में महिलाओं, युवाओं, चरवाहों और स्थानीय समुदायों की सार्थक भागीदारी को संस्थागत बनाना जरूरी हो गया है। हर साल दस करोड़ हेक्टेयर यानी मिस्र के आकार के बराबर की उत्पादक भूमि सूखा और मरुस्थल की भेंट चढ़ती जा रही है।

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पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया भर में बढ़ रहा सुखा ऐसा खामोश हत्यारा बन चुका है, जिससे बचना, ऐसे किसी भी प्रभावित देश के लिए असंभव सा होता जा रहा है। इससे कृषि, जल सुरक्षा और 1.80 अरब लोगों के लिए आजीविका का खतरा पैदा हो गया है। इसका सबसे बड़ा खमियाजा निर्धनतम देश भुगत रहे हैं। अंदेशा है कि निकट भविष्य में पानी जैसे आवश्यक संसाधनों की कमी लोगों के बीच बड़े टकरावों का कारण बन सकती है। विस्थापन का संकट और अधिक भयावह हो सकता है। बीते तीन वर्षों से दुनिया के ऐसे 30 से अधिक देशों में सूखे के भयावह हालात हैं। इस स्थिति से प्रभावित उरुग्वे, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया के साथ ही भारत, चीन, अमेरिका, कनाडा और स्पेन जैसे देशों पर भी इसकी छाया पड़ चुकी है।

सूखे के कारण यूरोप की राइन नदी का अनाज परिवहन और अमेरिका में पनामा व्यापार मार्ग बाधित हो चुका है। ब्राजील जलविद्युत संकट से जूझ रहा है। शोधकर्ताओं का कहना है कि लगातार सूखा क्षेत्रों के विस्तार से वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर बड़ी संख्या में लोग सूखे की चपेट में आ सकते हैं। इसकी वजह वर्षा की कमी ही नहीं, जलवायु परिवर्तन और भूमि कुप्रबंधन भी है। पहाड़ी वनों की कटाई से व्यापक भू-क्षरण हो रहा है। इससे सूखा ही नहीं, ताप लहर और बाढ़ जैसे खतरे भी आसन्न हैं। ऐसी स्थितियों में आजीविका का जोखिम कई गुना बढ़ जाएगा। पारिस्थितिकी आपदा पूरे विश्व की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को झकझोर सकती है।

इस समय दुनिया भर में हरित मिशन चलाने वाले दस युवा ‘भूमि ”भी’ मरुस्थलीकरण पर काबू पाने की कोशिश कर रहे हैं। उनमें मुख्यतः मिट्टी क्षरण से एक हैं गरीब किसान परिवार के सिद्धेश सकोरे । वे की रोकथाम पर काम करने के साथ जैविक कृषि वानिकी नवाचारों से महाराष्ट्र के किसानों के लिए आजीविका के अवसर पैदा कर रहे हैं। हरित उद्यमी रोकियातु त्राओरे माली में मारिंगा पेड़ पर आधारित एक सामाजिक उद्यम चला रही हैं। अब तक उन्होंने कई महिलाओं को 20 हजार मोरिंगा पेड़ों से जैविक चाय, पाउडर, तेल, साबुन, मसाले और शिशु आहार आदि बनाने में प्रशिक्षित किया है। जिम्बाब्वे के भूमि-नायक तकुदजवा एश्ले अपने संगठन ‘फारेस्ट्री एंड सिट्रस रिसर्च’ के माध्यम से मरुस्थलीकरण रोकने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता और सैटेलाइट तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं के लिए दुनिया में सबसे संवेदनशील देश फिलीपींस में ‘मसुंगी जियोरिजर्व फाउंडेशन’ के अगुआ बिली क्रिस्टल जी डुमालियांग मनीला के आसपास लगभग 2,700 हेक्टेयर क्षतिग्रस्त जलग्रहण क्षेत्रों की पुनर्बहाली और पर्यावरणीय संतुलन स्थापित करने में जुटे हुए हैं। इसी तरह एस्ट्रिड पेराजा कोस्टारिका में जलवायु शिक्षक के रूप में एक बोर्ड गेम विकसित कर खिलाड़ियों को जलवायु परिवर्तन और उसके समाधानों का पाठ पढ़ा रहे हैं।

इस बीच संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने प्राकृतिक स्थिरता और जन जीवन की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर की सरकारों, निजी क्षेत्र की आर्थिक शक्तियों और समुदायों से भूमि क्षरण की रोकथाम और पृथ्वी की रक्षा की दिशा में पुरजोर कदम उठाने का आह्वान किया है। उनका कहना है कि हर सेकंड चार फुटबाल मैदानों के आकार की उत्पादक भूमि, क्षरण की चपेट में आ रही है। बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में घटते उत्पादन और बढ़ती खपत के गैर- टिकाऊ तौर-तरीकों के कारण भी प्राकृतिक संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे हालात में हर वर्ष विस्थापितों की संख्या बढ़ रही है।

विजय गर्ग ,सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, शैक्षिक स्तंभकार , स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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