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 गांवों की कीमत पर फैलते शहर

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Cities expanding at the expense of villages नए शहर और कस्बे बसाना आज की जरूरत बताई जा रही है। केंद्र सरकार पिछले दस वर्षों में बड़े शहरों में जनसंख्या के बढ़ते घनत्व पर अंकुश लगाने और बढ़ती आबादी के मद्देनजर नए शहर बसाने की कोशिश में जुटी है। सभी सुविधाओं से युक्त कस्बों के निर्माण को भी प्राथमिकता दी जा रही है। देश के तमाम अंचलों में शहर और कस्बे बसाने का काम चल रहा है। नए कस्बों और शहरों का निर्माण तथा पुराने शहरों के विस्तार की जरूरत वाहनों की बढ़ती संख्या, भीड़भाड़ और प्रदूषण बढ़ने के कारण महसूस हो है। इसे देश देश के विकास और विकसित देश के निर्माण रूप में भी देखा जा जा रहा है। एक हकीकत यह भी है कि विकास योजनाओं और बेहतर नीतियों के बावजूद गांवों से पलायन में कोई कमी नहीं आई है। रोजगार की बेहतर संभावनाओं की तलाश में युवा और मेहनतकश लोग अपने पुश्तैनी गांव तथा खेत- खलिहान छोड़ कर शहर जाते हैं। वहां उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। महानगरों और शहरों में उन्हें नाउम्मीदी ही लगती है। फुटपाथों पर भीख मांगते बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग इसके प्रमाण हैं। इनमें ज्यादातर ऐसे असहाय लोग हैं, जिनको सहारा देने वाला कोई नहीं होता।

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गांवों की तरक्की लिए नई योजनाएं बनाई जा रही हैं। प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। किसानों को खेती के लिए कई सुविधाएं दी जा रही हैं। गांवों से शहरों की तरफ पलायन रोकने की कोशिशें की जा रही हैं। बावजूद इसके पलायन नहीं रुक पा रहा है। ताजा आंकड़ों और अनुमान के मुताबिक आने वाले पांच वर्षों में शहरों में दस करोड़ मकान बनाने की जरूरत पड़ेगी। केंद्र सरकार शहरों और गांवों में बड़े पैमाने पर मकान बनाने में लगी है, लेकिन अभी भी करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है। सरकार एक तरफ गांवों से पलायन रोकने की कोशिश में लगी है, तो दूसरी तरफ नए महानगर बसाने पर भी काम कर रही है। इन नए शहरों में कौन आकर बसेगा ? जाहिर सी बात है, गांव का वह धनी वर्ग, जो अब खेती नहीं करना चाहता। वह गांव से निकलना चाहता है। मगर गांवों से पलायन कर शहरों और कस्बों में आकर मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग या जाना चाहते हैं। वे खेतिहर मजदूर बन कर गांव उन्हें लगता है कि उनके लिए गांव पहले जैसा मुफीद नहीं रहा। गांवों में ऐसे परिवार ही रहना चाहते हैं, जो अपनी विरासत खोना | नहीं या परिवार भी शहरों में ही ब रहना नहीं चाहते।

वित्तमंत्री ने बजट में शहरी अवसंरचना विकास निधि (यूआइडीएफ) के जरिए द्वितीय और तृतीय श्रेणी के शहरों में सार्वजनिक/ राज्य एजेंसियों, नगर निगमों, शहरी स्थानीय निकायों जरिए कार्यान्वित शहरी बुनियादी ढांचे विकास कार्यों के लिए राज्य सरकारों के प्रयासों को वित्तपोषण का एक स्थिर और अनुमानित स्रोत प्रदान करने की घोषणा की थी। पर्यावरणविदों के मुताबिक इतने बड़े पैमाने पर शहरों और कस्बों के निर्माण से देश प्रदूषण और जल संकट से जूझ रहा होगा। मौजूदा दौर में देश के ज्यादातर शहरों और कस्बों बढ़ती आबादी अपराध, बेरोजगारी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, साधारण बरसात में बाढ़ जैसे हालात, ध्वनि प्रदूषण, सड़क दुर्घटनाएं, अपर्याप्त परिवहन, असंगठित कालोनियों की लगातार बसावट और झुग्गी- झोपड़ियों के फैलाव जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ये सभी शहरीकरण के नकारात्मक पक्ष हैं। इन पर गौर करने की जरूरत है।

दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत शहरीकरण को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गांव के लोगों को लगता है कि शहरी जिंदगी बहुत अच्छी है। दिन भर मेहनत कर अपने और परिवार के लिए अच्छा भोजन जुटाया जा सकता है। अधिक मेहनत से कमाई हो जाती है। बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ लेते हैं। सब कुछ सहज रूप से मिल जाता है। शहरों के बारे में इस तरह की जानकारी जब गांव के गरीबों के पास पहुंचती है, तो वे घर छोड़ कर शहरों में रोजगार के अवसर तलाशते हैं। गरीबी व्यक्ति को कितना मजबूर कर देती है, यह वही जानता है, जो मजबूरी में जिंदगी बसर कर रहा। हो।

शहरीकरण के सकारात्मक पक्ष विकास को इंगित करते हैं। मगर यह कई समस्याएं पैदा करने की वजह के रूप में देखा जाता है। इसलिए इस पर सवाल भी उठते हैं। आज गांवों में जो समस्याएं हैं उनमें गरीबी और में उससे बढ़ता हुआ पलायन प्रमुख है, तो दूसरी समस्या रोजगार का अभाव है। शहरीकरण केंद्र और राज्य सरकारों की नीति का हिस्सा है। इसका सीधा मतलब है कि गांवों से लोग नए शहरों में आकर बसें और सरकार वहां सारी सुविधाएं उपलब्ध कराए। मगर सवाल है कि नए शहरों को बसाने के लिए जो आधुनिक सुविधाएं होनी चाहिए, वे क्या पर्यावरण की कीमत पर मुहैया कराई जा हैं? जलवायु परिवर्तन क का नया संकट दुनिया भर में पैदा है उससे हुआ उससे पैदा हुई है अधिक गर्मी, अधिक बरसात, उससे बढ़ती बाढ़ की समस्या और अकाल। साफ पानी की उपलब्धता, जरूरत के मुताबिक सबको रोजगार, अस्पताल, स्कूल-कालेज और रोजमर्रा की सभी चीजें उपलब्ध कराना क्या इतना सहज है, जितना सरकार कहती है।

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भारत के हर बड़े और मझोले शहरों में आज प्रदूषण सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा कूड़े का निपटान और स्वच्छता को सतत बनाए रखना बड़ी समस्या है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ, कानपुर, जयपुर, रांची, इंदौर, भोपाल, चंडीगढ़ और पटना सहित देश बड़े शहरों में मूलभूत जरूरतों की बेहतर व्यवस्था होने के दावों के बावजूद सच यह है कि दिल्ली सहित कई बड़े शहरों में भीड़ बढ़ रही है। विकसित देशों में शहरीकरण देश के विकास का पर्याय है। गांवों में में श्वास लेने और मौज-मस्ती के लिए जाते हैं। वहां गांवों के हालात वैसे दयनीय नहीं हैं जैसे भारत में हैं सुरक्षा और सेहत के मामले में भी विकसित देश भारत | कई गुना अच्छे हैं। मगर उनका विकास उद्योगों और औजारों के निर्यात पर आधारित है। खेती तो महज दो-तीन फीसद लोग करते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में अब भी 15-20 फीसद योगदान कृषि क्षेत्र का है। शहरीकरण से कृषि क्षेत्र का हिस्सा खत्म होगा, इससे किसका फायदा होगा? गांव उजड़ेंगे और नए शहर बसेंगे। नए शहरों को बसाने में जो करोड़ों रुपए खर्च होंगे, यह आर्थिकी पर बोझ की तरह ही होगा। इसलिए शहरीकरण रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और वंचितों को हर तरह के संसाधन मुहैया कराने का समाधान नहीं। शहरीकरण से समुद्रों, नदियों, तालाबों, खेतों, नहरों, जंगलों, पर्वतों और स्वच्छ जलवायु में गंदगी ही बढ़ती है। आजादी के बाद शहरीकरण जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से नदी नहर, तालाब, जंगल, पर्वत, खेत, हवा और दूसरे सभी प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचा है। फिर भी सरकार देश को नए विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए शहरीकरण को बढ़ावा दे रही है। इसलिए कि शहरीकरण वक्त की जरूरत है, इसे पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। मगर गांवों से पलायन कर लोग शहरों में बसें, इससे समस्याएं घटेंगी नहीं, बढ़ेगी ही।

विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट, पंजाब

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