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AI competing with human intelligence  मानवीय बुद्धिमत्ता से होड़ लेती एआइ

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AI competing with human intelligence  कृत्रिम बुद्धिमत्ता यनी एआई और डीपफेक के खतरे को लेकर भविष्य के लिए जो आशंकाएं जताई जा रही हैं, उसका मनोवैज्ञानिक पक्ष अहम है। युग निर्माण के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे देखें तो हम फोटोग्राफी, मूक और सवाक चलचित्र के बाद छवि भ्रम के एक ऐसे दौर में हैं, जिसने वास्तविक (एक्चुअल) और आभासी (वर्चुअल) के अंतर को तकरीबन पाट दिया है। फैक्ट चेक से जुड़े नए एप्लीकेशन और सर्च इंजन इस अंतर की शिनाख्त तो जरूर कर पा रहे हैं, पर वे भी इस पर विराम लगाने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि विशेषज्ञ आज यह कह रहे हैं कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता एटम बम से भी खतरनाक है।

परिवर्तन और आशंका की इस भयावह स्थिति को समझने के लिए हमें 15 सल पीछे लौटना होगा। दरअसल हम बात कर रहे हैं अरब स्प्रिंग की। यह मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में 2010 से शुरू हुए विद्रोहों की एक श्रृंखला थी। इसे अरब जागृति या अरब विद्रोह भी कहा गया। इंटरनेट संवाद की ताकत से उभरे इस आंदोलन की शुरुआत ट्यूनीशिया में हुई थी। यह आंदोलन धीरे-धीरे लीबिया, मिस्र, लेबनान, मौरवको जैसे देशों में फैल गया। इस अदिलन में लाखों लोगों ने शिरकत की और निरंकुश शासन की पलट दिया, पर बदलाव का यह आवेग परिवर्तन का कोई स्थायी चरित्र नहीं बन पाया। आज की तारीख में इस आंदोलन के कई विरोधाभासी नतीजे देखे जा रहे हैं। सरकारी निरंकुशता, कलह और अशांति से जुड़ी नई स्थितियों का सामना आज इन तमाम मुल्कों में लोग कर रहे हैं बदलाव की बड़ी आकांक्षा के ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम से अभी दुनिया कुछ सीखती, उससे पहले ही इंटरनेट की दुनिया नए चमत्कारों को लेकर समने आ गई। इसमें तकनीक और मनुष्य की चेतना के बीच का द्वंद्व प्रमुख है।

बीते वर्ष एक इंस्टाग्राम पोस्ट की पांच करोड़ से ज्यादा बार शेयर किया गया। एआइ से बनी उस तस्वीर में विस्थापित फलस्तीनी शिविरों को दिखाया गया था। इसमें बीच में नारा लिखा था- आल आइज आन रफा गैौरतलब है कि 2024 के मई में दक्षिणी गाजा के रफा शहर में फलस्तीनी शिविरों पर इजरायली हमले हुए उस हमले में कम से कम 45 फलस्तीनी मारे गए थे। उस घटना के बाद यह तस्वीर देखते-देखते पूरी दुनिया में वायरल हो गई।

चिंता की एक बड़ी वजह यह भी है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बूते जी बात प्रतीकात्मक तस्वीर से शुरू हुई, वह देखते-देखते लोगों की निजता के दायरे तक पहुंच गई। भूले नहीं होंगे लोग भारत में अभिनेत्री रश्मिका मंदाना की डीपफेक तस्वीर के बाद शुरू हुई बहस और विवाद को इस तरह के मामले अब आए दिन सामने आ रहे हैं। कभी किसे क्रिकेट खिलाड़ी की शादी की फर्जी तस्वीर वायरल होती है, तो कभी किसी के रातोंरात मालामाल होने या लुटने- पिटने की इस तकनीकी हिमाकत ने लैंगिक दुराग्रह को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है।

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बहरहाल लैंगिक दुराग्रह की चिंता के साथ आकार लेने वाला कृत्रिम बुद्धिमत्ता का तकनीकी वितान आज खस विस्तार ले चुका है। यह तकनीक जिस तरह घर-परिवार और समाज में दाखिल हो रही है, उससे पूरी दुनिया में घबराहट है। इस घबराहट की सबसे बड़ी वजह मनोवैज्ञानिक है। दरअसल इंटरनेट मीडिया पर जो तस्वीरें हम देखते हैं उसका हमारे दुनिया को देखने के नजरिए पर व्यापक असर पड़ता है। कंप्यूटर और साफ्टवेयर की दुनिया में क्रांति का फ्रंटफेस पहले दिन से छवियों का रोमांच रहा है। यही वजह है कि बात करने की सहूलियत के लिए जो मोबाइल फोन हमारे हाथ आया, आज वह कैमरे से आगे के मुकाम पर है। देखते-देखते पूरी दुनिया छवियों का एक ऐसा अनंत उत्सव मनाने में जुट गई, जिसमें रीयल को रील में देखने का शगल हमारे रोजमर्रा में शामिल हो गया।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट पर एक औसत यूजर रोजाना छह घंटे 40 मिनट तक समय गुजारता है। इस दौरान तस्वीरें हमारी धारणाओं को नए सिरे से गढ़ती और बदलती हैं। धारणाओं के इस बदलाव को गूगल जैसे लोकप्रिय सर्च इंजन रोकने या नियंत्रित करने के बजाय और ज्यादा बढ़ावा दे रहे हैं। वे सर्व नतीजों में तस्वीरों का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा करने लगे हैं। मसलन अब जब सर्च इंजन पर जाकर कुछ खेजते हैं, तो आपको टेक्स्ट के साथ तस्वीरें ज्याद देखने को मिलती हैं।

डीपफेक समग्री को 2014 में सिंथेटिक मीडिया कहा गया। 2023 के मई में जब एआइ के जनक कहे जाने वाले जेफ्री हिंटन ने गूगल का साथ छोड़ा तो इस तकनीक की भयावहता को लेकर एक गंभीर विमर्श पूरी दुनिया में शुरू हुआ। हिंटन ने एआइ के खतरों को लेकर कहा, ‘मैं खुद को सांत्वना देता हूं कि यदि मैंने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर काम नहीं किया होता तो कोई और करता। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इस तकनीक का गलत इस्तेमाल होने या गलत हाथों में पड़ने से कैसे रोक सकते हैं।’ अपने बेहतरीन कार्य के लिए कंप्यूटिंग का नोबेल पुरस्कार पा चुके हिंटन का यह कहना आज सच साबित हो रहा है कि एआइ के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को रोकना असंभव तो होगा ही, तकनीक का यह नया क्षेत्र दिनोंदिन अनियंत्रित और अराजक होता जाएगा।

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असल में आज हम बदलाव के एक ऐसे दौर में हैं, जब तकनीकी विकास ने मानवीय बुद्धिमत्ता से संधे-संधे होड़ लेना शुरू कर दिया है। दिलचस्प है कि कौविड महामारी के दौर में लोगों को सेहत पर निगरानी के साथ भारत सहित दुनियाभर की सरकारों द्वारा डाटा संकलन का दौर शुरू हुआ तो मशहूर इतिहासकार युवाल नेआ हरारी ने कहा कि हम सर्विलांस के दौर में आ गए हैं। एक ऐसा दौर जब हमारा शरीर और मस्तिष्क दोनों ही अज्ञात रूप से नियंत्रित हैं। आज की स्थिति में हरारी अपने साक्षात्कारों में कह रहे हैं कि एआइ की मौजूद उपस्थिति और दखल अभी तो अमीबा के रूप में है वह दौर भी जल्द ही सामने आएगा जब यह अमीबा से डायनासौर बन चुका होगा और तब सब कुछ समाज और सरकारों के नियंत्रण के बाहर होगा। यूरोपियन इंटरनेशनल पुलिस पहले ही आशंका जता चुकी है कि 2026 तक इंटरनेट पर 90 प्रतिशत सामग्री सिंथेटिक होगी। एआइ की मदद से तैयार होने बाली ऐसी सामग्रे और छवियां फेक और डीपफेक से आगे हमारे सोच-विचार का एक ऐसा परिवेश गढ़ेंगी, जो पहले दिन से दुराग्रह से भरी होंगी। विगत वर्ष में एआइ को ताकत को हम देशों के बीच के जंग के रूप में पहले ही देख चुके हैं। यहां तक कहा गया कि भविष्य का युद्ध तोप और फाइटर जेट से नहीं, बल्कि कंप्यूटर माउस से लड़ा जाएगा। लिहाजा जी लोग एआइ के साथ विकसित हुई नई सूक्ष्म तकनीक का इस्तेमाल स्वास्थ्य के साथ रोध और अकादमिक क्षेत्र में क्रांतिकारी बता रहे हैं, वे इससे जुड़े अब तक के अनुभवों पर गौर नहीं कर रहे हैं। शब्द से लेकर छवि तक पसरे ज्ञान स्त्रीत ही जब फर्जीवाड़े की भेंट चढ़ जाएं तो उसको लेकर मानवीय संवेदना और सरोकारों को लेकर कोई बात करनी ही बेमानी है। यह मौजूदा दौर के साथ आने वाले समय के गले से झूलती एक ऐसे सच्चाई है जिसका निदान विकास और विज्ञान के संघ में आगे बढ़कर नहीं, बल्कि मनुष्य के सभ्यतागत विकास के बोध और दिशा पर नए सिरे से विचार करने से संभव होगा।

विजय गर्ग, सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, शैक्षिक स्तंभकार, स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट , पंजाब

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