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साध्वी बनने का नया ट्रेंड: त्याग की ओट में सुख का ब्रांड?

कलाएँ और रंगमंच

बचपन में हम सुनते थे कि साध्वी वह होती है जो मोह, माया, श्रृंगार, आकर्षण और सांसारिक जिम्मेदारियों से ऊपर उठ गई हो। वह जो खुद को समर्पित कर दे — ध्यान, साधना और आत्मा के शुद्धिकरण के लिए। आज की दुनिया में जब हम ‘साध्वी’ शब्द सुनते हैं, तो कल्पना में कोई ध्यानमग्न स्त्री नहीं आती, बल्कि किसी मंच पर तेज रोशनी में प्रवचन देती, डिज़ाइनर केसरिया वस्त्रों में सजी-धजी, सोशल मीडिया पर हजारों अनुयायियों वाली कोई ‘आधुनिक साध्वी’ उभर आती है।

अब साध्वी बनने का अर्थ आत्म-त्याग से नहीं, एक नई जीवन शैली से जुड़ गया है — जिसमें भोग त्यागने का दावा तो है, लेकिन सुख और लोकप्रियता का उपभोग भलीभांति जारी है। त्याग के नाम पर अब एक सुरक्षित ब्रांडिंग की जाती है, जिसमें स्त्री घर-परिवार, विवाह और सामाजिक दायित्वों से अलग होकर एक आध्यात्मिक आभामंडल रचती है — जिसमें चमक होती है, भीड़ होती है, डोनेशन होते हैं, देश-विदेश की यात्राएं होती हैं, पर आत्मसंयम और आत्मचिंतन का गहराई से कोई वास्ता नहीं होता।

यह प्रवृत्ति कोई आध्यात्मिक जागरण नहीं, बल्कि एक रणनीतिक पलायन है — जहाँ स्त्रियाँ संसार से भागती नहीं, बल्कि उसे अपने तरीके से नया आकार देती हैं, अपनी सुविधाओं और अपेक्षाओं के अनुसार। वे कहती हैं — हमने सब त्याग दिया, पर वास्तव में उन्होंने वही त्यागा जो उन्हें परेशान करता था — जिम्मेदारी, अपेक्षा, उत्तरदायित्व, और रिश्तों का बोझ। लेकिन उन्होंने अपना ‘मैं’ नहीं त्यागा, अपनी ‘महत्ता’ नहीं छोड़ी।

आज की कई तथाकथित साध्वियाँ सार्वजनिक मंचों पर उपदेश देती हैं कि भोग एक भ्रम है, गृहस्थी एक बंधन है, स्त्री का असली रूप वही है जो भीतर मौन हो और बाहर समर्पण में हो। लेकिन जब वही साध्वी इंस्टाग्राम पर फ़िल्टर लगाकर वीडियो अपलोड करती है, जब वह अपने हर कार्यक्रम का विज्ञापन करवाती है, जब उसके आयोजनों में विशेष पास और वीआईपी दीर्घा होती है — तब यह सवाल उठता है कि यह आध्यात्म है या महज एक सफल जनसंपर्क योजना?

पुराने समय में साध्वी बनना साहस का काम था। एक स्त्री जब दुनिया से अलग होती थी, तो उसे हर कदम पर समाज से टकराना पड़ता था। आज, जब कोई कहती है — मैं अब साध्वी हूँ — तो उसकी हर सामाजिक आलोचना चुप हो जाती है। क्योंकि हम यह मान बैठे हैं कि जो स्त्री केसरिया पहन ले, सिर पर घूंघट रख ले, और संस्कृतनिष्ठ भाषा में बोले — वह अब “देवी” है, उससे सवाल नहीं किए जा सकते।

इस प्रवृत्ति में सबसे बड़ा संकट यह है कि यह स्त्रियों को एक नया पलायन रास्ता दे रही है — आत्म-निर्माण के नाम पर आत्म-दंभ की गली। वे ना तो घर की जिम्मेदारी उठाना चाहती हैं, ना कार्यक्षेत्र की स्पर्धा में उतरना चाहती हैं, ना परिवार, समाज या राजनीति से टकराना चाहती हैं। उन्हें चाहिए एक ऐसा क्षेत्र जहाँ वे पूजी जाएं, पर जांची ना जाएं। साध्वी बनना उस ‘पावन छवि’ का माध्यम बन गया है, जो न किसी से प्रश्न करवाती है, न उत्तर देने को बाध्य करती है।

जब कोई साधारण महिला मानसिक थकावट से जूझती है, तो उसे “आराम करो”, “खुद को समय दो” जैसा कहकर चुप करा दिया जाता है। पर जब कोई कहती है “मैं अब साध्वी बन गई हूँ”, तो उसकी थकान को आध्यात्मिक महाकाव्य बना दिया जाता है। उसे मंच मिलता है, मीडिया का समर्थन मिलता है, और अनुयायियों की भीड़ बन जाती है।

यह साध्वी अब माइक पर बोलती है — “मैंने सब त्याग दिया”, पर त्यागने के बाद जो मिला — वह कोई सामान्य गृहिणी कभी नहीं पा सकती। वह प्रवचन देती है, लेकिन कभी स्त्री अधिकार, सामाजिक न्याय, या आर्थिक समानता की बात नहीं करती, क्योंकि यह विषय उसके स्वनिर्मित आध्यात्मिक क्षेत्र को असुविधाजनक बना सकते हैं। वह किसी सरकार से नहीं टकराती, किसी असमानता पर नहीं बोलती, बस ध्यान, मन, आत्मा और जीवन का चक्र रचती रहती है।

इसे ही हम कह सकते हैं — “परिष्कृत भोग”। यह ऐसा भोग है जो सीधे भौतिक वस्तुओं में नहीं, पर ध्यान, सत्ता, मान्यता और प्रतिष्ठा के माध्यम से प्राप्त होता है। यह वासना नहीं, लेकिन ‘विख्याति की भूख’ जरूर है। इसमें श्रृंगार नहीं, परंतु आत्म-प्रदर्शन की आकांक्षा जरूर है। इसमें कोई व्यक्तिगत उत्तरदायित्व नहीं, पर सामूहिक नियंत्रण की छाया ज़रूर है।

समाज, विशेषकर पुरुष प्रधान मानसिकता, को यह भूमिका बेहद स्वीकार्य लगती है। उसे वह स्त्री नहीं चाहिए जो सवाल करे, विचार करे, संघर्ष करे। उसे चाहिए ‘आज्ञाकारी साध्वी’, जो धर्म की ओट में चुप रहे और ‘शांतिपूर्ण अध्यात्म’ का चेहरा बने रहे। ऐसे में साध्वी बनना एक सुरक्षित मंच बन जाता है — जो न केवल स्त्री को उसके भीतर के प्रश्नों से बचाता है, बल्कि समाज की अपेक्षाओं को भी पूर्ण करता है।

इसलिए आज की कई साध्वियाँ असल में ‘त्यागिनी’ नहीं, बल्कि ऐसी महिलाएँ हैं जो जीवन से थकी हैं, रिश्तों से टूटी हैं, समाज से असंतुष्ट हैं, और इस असंतोष को ‘ईश्वर की खोज’ में छुपा देती हैं। वे चाहती हैं कि उन्हें अब कोई कुछ न कहे, कोई अपेक्षा न रखे, लेकिन सब उनका सम्मान करें, सब उन्हें सुनें, सब उन्हें मानें। यह आध्यात्म नहीं, ‘सामाजिक चतुराई’ है।

इस आधुनिक अध्यात्म में त्याग के स्थान पर मंच है, तपस्या के स्थान पर लाइमलाइट है, और शांति के स्थान पर डिजिटल ग्लैमर है। यह ऐसा अध्यात्म है जहाँ मोक्ष तो अभी भी लक्ष्य बना है, लेकिन रास्ता अब यूट्यूब चैनल, इंस्टाग्राम लाइव और ऑनलाइन कोर्स के माध्यम से तय किया जाता है।

इसलिए हमें यह समझना होगा कि त्याग केवल कपड़ों से, बालों से या वाणी से सिद्ध नहीं होता। उसका संबंध मन से, आचरण से और नीयत से होता है। जब तक साध्वी बनने की प्रक्रिया आत्ममंथन की नहीं, बल्कि आत्म-प्रदर्शन की बनी रहेगी, तब तक यह साध्वी संस्कृति असली साधना को निगलती रहेगी।

यह कोई विरोध नहीं, एक विनम्र आग्रह है — स्त्रियाँ अगर साध्वी बनती हैं, तो उन्हें सचमुच साधना करनी चाहिए। मंचों से उतर कर उन विषयों पर बोलना चाहिए जिनसे समाज डरता है। उन्हें केवल ध्यान नहीं, चिंतन और आंदोलन का रास्ता भी अपनाना चाहिए। क्योंकि अगर हर स्त्री साध्वी बन कर चुप हो जाएगी, तो वह परिवर्तन कौन लाएगा?

त्याग वह नहीं जो दिखे, त्याग वह है जो भीतर से किया जाए। और भोग केवल इन्द्रियों से नहीं होता, वह प्रशंसा, अहंकार और पहचान के माध्यम से भी आता है।

जब तक हम इस नये ‘साध्वी ट्रेंड’ को नहीं समझेंगे, तब तक आध्यात्म भी एक उद्योग, एक शैली, एक मार्केटिंग मॉडल बना रहेगा — जिसमें भोग त्याग के कपड़े पहनकर हर मंच पर मुस्कराता रहेगा।

प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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