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शिक्षा खड़ी बाजार में

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शिक्षा अपने आप में एक अत्यंत पवित्र शब्द है, जिसके आगे सारी विशेषताएं और दावे अधूरे नजर आते हैं। शिक्षा का प्रभाव हमारे वर्तमान ही नहीं, अतीत पर भी पूरी तरह छाया हुआ था । सच यह है कि शिक्षा को अगर हम किताबी ज्ञान तक सीमित करें, तो यह ठीक नहीं है। इसका स्वरूप किताबी ज्ञान से कहीं ज्यादा है। वर्तमान में शिक्षा बाजार उन्मुख हो गई है। चाहे शिक्षा देने वाले हों या शिक्षा लेने वाले, सभी शिक्षा को धन अर्जित करने का साधन मानकर चलते हैं । आज के दौर में शिक्षा अर्जन का उद्देश्य धनार्जन है। दसवीं, बारहवीं जैसी कक्षाओं के परिणाम तय करते हैं कि बच्चा किस जगह जाना चाहता है। मगर उसकी आंतरिक इच्छा भले ही कुछ और करने की हो, फिर भी उसको जबरदस्ती भेड़चाल में धकेलने की पूरी व्यवस्था समाज में मौजूद है।

ऐसी स्थिति के लिए स्कूल-कालेज के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता भी उतने ही जिम्मेदार हैं। बड़े-बड़े कोचिंग केंद्र लोगों को डाक्टर, इंजीनियर, आएएएस आदि बनाने में जुटे हैं, जबकि बच्चे की मर्जी जाने या उसके मन को टटोले बिना कोचिंग केंद्रों में उनके दाखिले करा दिए जाते हैं, भले ही बच्चा दबाव झेलने में सक्षम हो या न हो । समझने की बात यह है कि क्या पढ़-लिखकर केवल अपने उत्थान के लिए कुछ करना हमारे देश के लिए काफी होगा। मूलतः यह सोच ही बाजारीकरण की द्योतक है। पढ़ाई के नाम पर जिस तरह से फीस वसूली जाती है, उससे निर्धन बच्चों का भविष्य आमतौर पर अधर में रह जाता है। हालांकि ऋण सुविधाओं और सरकारी योजनाएं कुछ हद तक इसमें राहत पहुंचाती हैं, लेकिन कुछ लोगों तक ही इनकी पहुंच होती है, बाकी के सभी इस तंत्र का शिकार बनते हैं। उन्हें छोटी-छोटी नौकरियों के लिए भी काबिल नहीं समझा जाता | हिंदी माध्यम के विद्यार्थी के मुकाबले अंग्रेजी माध्यम का विद्यार्थी इसलिए योग्य समझा जाता है, क्योंकि उसका अंग्रेजी का ज्ञान कहीं ज्यादा है।

प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को पता है कि कहां कैसा माहौल है। मगर सब ओर यही स्थिति है कि जहां जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो । इतना बड़ा देश है, इतनी सारी समस्याएं हैं, किस-किस पर ध्यान दिया जाए? ऐसी सोच लेकर सभी लोग अपने जीवन को चलाने में विश्वास रख रहे हैं और फिर आज के इस युग में ‘मैं क्यों बोलूं’ वाली धारणा का प्रचार अधिक ही असर दिखा रहा है। सड़क पर चलते हुए हम बहुत से गरीब बच्चों को देखते हैं । न जाने किसके अंदर कैसी प्रतिभा छिपी है। हमने शिक्षा कि सारी बुनियादी बातों को दरकिनार कर दिया है। सरकारी व्यवस्था सबके लिए समान शिक्षा, अनिवार्य, निशुल्क और शिक्षा की व्यवस्था करती है, लेकिन क्या इन स्कूलों से पढ़े बच्चे उन बच्चों के साथ प्रतियोगिता में खरे उतर सकते हैं जो महंगे स्कूल में पढ़ते हैं ? इस व्यवस्था को बदलना आसान काम नहीं है।

शिक्षा श्रेष्ठि वर्ग के लिए प्रतिष्ठा और मान-सम्मान का विषय हो गई है। ऐसे संस्थानों में गरीब प्रवेश ही नहीं कर सकता, जहां कुलीनता ही पहचान है। शिक्षा और आर्थिक जीवन के बीच यह टकराव खतरनाक है। आज नहीं तो कल, कोई ऐसा वक्त भी आ सकता है जब यह बाजारीकृत व्यवस्था अपना एक वर्ग खड़ा कर ले, या फिर ऐसा हो कि उपेक्षित वर्ग इसके खिलाफ खड़ा हो जाए । दोनों ही स्वरूप उचित नहीं है। समाज में संतुलन समाज की आधारभूत आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति के जरिए शिक्षा के क्षेत्र काफी परिवर्तन को शामिल किया गया है। जब-जब शिक्षा की नीति में परिवर्तन हुआ है, तब-तब रोजगार का क्षेत्र भी प्रभावित हुआ । 1986 की शिक्षा नीति में तकनीकी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया था। इससे कई रोजगार क्षेत्रों में तेजी दर्ज की गई, तो कहीं भारी गिरावट भी आई। अब एक बार फिर नई शिक्षा नीति प्रस्तावों के मुताबिक कला, विज्ञान, व्यावसायिक विषयों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होने और इसे बच्चों के लिए शिक्षा को सहज बनाने में सक्षम होने की संभावना जताई जा रही है। इसके तहत, राष्ट्रीय नवाचार अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा स्कूल के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम तैयार किया जाएगा। इससे हमारी व्यवस्था में सकारात्मक सुधार की अपेक्षा है।

उच्च शिक्षा की तरफ देखा जाए तो पता चलता है कि उच्च शिक्षा के लिए जो व्यवस्था स्थापित करने का उद्देश्य है, उसमें एक विषय भारत में विदेशी विश्वविद्यालय का भारत में प्रवेश करने का है। सवाल है कि ये विश्वविद्यालय शिक्षा को बेहतर करेंगे या महंगी व्यवस्था को स्थापित करेंगे। यह भविष्य ही बताएगा कि वर्तमान शिक्षा नीति पिछली अव्यवस्थाओं को दूर करने में सक्षम होती है या नहीं। फिर भी इसमें मातृभाषा में शिक्षा को अच्छी पहल कहा जा सकता है। हमारा यही उद्देश्य होना चाहिए कि शिक्षा सर्व समाज के लिए उपलब्ध हो और सस्ती हो । महंगी पढ़ाई केवल कुछ लोगों तक ही पहुंच सकती है।

शिक्षा एक मानवाधिकार है। इस अधिकार की पूर्णता तभी हो सकती है, जब इसे सभी तक बराबर के साथ पहुंचाया जाए । शिक्षा को सरकारों के आने-जाने के क्रम नहीं जोड़ना चाहिए । उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह आर्थिक मुद्दों से प्रभावित न हो और न ही किसी अन्य भावना से प्रभावित हो, बल्कि यह उन्मुक्त और सर्वसुलभ और सस्ती होनी चाहिए। बाजारीकरण की संस्कृति से अप्रभावित शिक्षा ही समाज को सुसंस्कृत और समय स्वरूप देने का माद्दा रखती है। हम सभी एक समान शिक्षा की तरफ जाएं और शिक्षा को व्यवसाय न मानकर देश की व्यवस्था का मूल मानें तो जिस तरह से देश के सैनिक सीमा पर डटे रहते हैं, वैसे ही शिक्षक समाज को मिलेंगे और वैसे ही विद्यार्थी भी देश को प्रगति के पथ पर आगे लेकर जाएंगे।

विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट, पंजाब

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